Tuesday, 26 October 2010

हम भले हीं न बाँटते हों अपनी रोटियां

हम भले हीं न बाँटते हों अपनी रोटियां

साथ-साथ बैठकर

अपने खाने की मेज पर,

लेकिन हम बाँटते हैं

किसी परिवार के उसी अन्तरंग सहभागिता के साथ

रोज

एक मुल्क की क़शमक़श,

राजनीति से उपजी हुई अराजकता,

अप्रत्याशित स्थानों पर उग आये अंधेरों का भयानक एहसास,

हालात बदलने की बेचैनी !

लेकिन यह भी सच है कि हमें बाँटने की कोशिश में लिप्त

कुछ अफवाहें

कभी-कभी कामयाब हो जाती हैं कुछ जगहों पर

और छोड़ जाती हैं एक कड़वापन हम सब की जबान पर,

जैसे घट रहा हो मीठापन

छण-भर को

साथ-साथ बाँटकर खायी गयी रोटियों का

किसी परिवार में !