क्यों अचानक उठने लगा है काला धुआं जंगल की साफ़, आदम हवाओं में ?
क्यूँ बिखरने लगा है
सदियों से ब्याप्त सन्नाटा बम, गोली और बारूदी सुरंगों के धमाकों से ?
कोई सिरफिरा कर रहा है ये सब
या फिर कोई ऐसा जिसे दूसरों की सुनने की नीयत पर ही यकीन न रहा ?
क्या इसका कोई हिसाब लगाकर बताएगा
कि किसने-किसने इतिहास के अलग-अलग दौर में उस सन्नाटे को सुनने की जहमत मोल नहीं ली
और जो शरीर से शुरू होकर धीरे-धीरे उसकी आत्मा तक ब्याप्त होता चला गया ?
कौन मन-ही-मन जानते हुए भी
कि ठीक इसी वक़्त दूर जंगलों में अनेक माँ-बाप खुद भूखे रहकर अपनी-अपनी भूखी औलादों को उबली हुई जंगली पत्तियां खिला कर
उन्हें जिन्दा रखने का असफल प्रयास कर रहे होंगे,
सत्ता की गलियारों में अनजान बनने का अभिनय करता रहा !
किसने-किसने अपना कलेजा पत्थर का कर रखा है
कि उस पर से मानवीय संवेदनाओं की नाज़ुक परत उघरती चली गयी है
और ढकता चला गया है वह,
अपनी सुख-सुविधाओं की चमचमाती, मोटी खाल से !
किसने-किसने अपने कान में जंगलों से आ रही कराहों और चीखों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ रखी है ?
हर उस चेहरे को जब भी मै कल्पना में देखता हूँ जिसके पीछे सधी हुई बंदूकें बढ रही हैं,
तो वह धूल-सना चेहरा मुझे बहुत नाराज तो दिखता है, मगर आतंकवादियों की तरह अजनबी और देश-द्रोही नहीं लगता !
क्या अचानक जंगलों में शांत पड़े लोगों को किसी काले जादू ने जकड लिया है
और अब वह खुरदुरी हथेलिओं पर बदलाव की लाल किताब खून से लिख रहा है !
या सदियों से उपेछाओं की कफन-सी ठंढी चादर समय के साथ जर्जर होकर परिवर्तन की तेज़ हवाओं में उड़ गयी है
और अचानक लाखों ब्यथित लोगों का गूंगापन एकदम से मुखर होकर सबके सामने आ गया है !
दरअसल ये वही लोग हैं जो शहरों की चमक-दमक से दूर रहते-रहते धुंधले पड़ चुके हैं,
जो जंगल के अंधेरों में गरीबी से टूट कर किसी झोपडी या पेड़ के नीचे शव की तरह अब तक लेटे रहे,
जो पुश्त-दर-पुश्त अनपढ़ होने के गूंगे शोर से लगभग बहरा हो चुके हैं
और बीमारी के थपेड़ों से चोट खाते-खाते सर्वनाश की आशंका से बेचैन होकर जाग उठे हैं ?
क्या यह सच नहीं है कि यह वही आदिम गूंगापन ही है
जो शहरों में पोषित हो रही भोगवादी संस्कृति तथा आत्म-रति से ग्रसित सुकुमार सभ्यता की आँखों में आंख डालकर तेज़ आवाज़ में असहज कर देनेवाले सवाल-दर-सवाल पूछ रहा है ?
एक मुद्दत से जहाँ सन्नाटा ठहर गया था,
फुसफुसाती थी जहाँ पत्तियों में भूख की आदिम तड़प,
स्याह पहाड़ियों पर नंगे पाँव घिसट-घिसट कर
भूख से मौत तक का सफ़र तय कर रहे थे जहाँ हड्डियों के बेशुमार ढांचे,
वहां से आनेवाला हर धमाके का रक्त-रंजित शोर आज बार-बार अपनी पहचान पूछ रहा है
और चिल्ला-चिल्ला कर यह कह रहा है कि वह आज ही पुरखों के इस जंगल में फिर से खामोश हो सकता है
क्योंकि उसका विरोध सदियों से इकठ्ठा होती गयी उसकी मजबूरियों से उपजा है,
किसी लालच या नफ़रत की भावना से नहीं |
उसे भी देश के संविधान में यकीन है,
पर कोई ये बताये तो कि उसमे उसके लिए क्या कुछ लिखा है ?
उसे तो यह भी नहीं पता कि अपने बचाव में क्या करने से कानून बुरा नहीं मानता है !
उसने तो वही किया है जो सामने चली आ रही मौत से निबटने के लिए शायद किसी को भी करना पड़ सकता है !
यह सच है कि कोई उसके घर आकर उसपर जानलेवा हमला नहीं कर रहा था
लेकिन किसी की नब्ज़ को ठंढा होते देखते रहना और बचाव में कुछ भी नहीं करना मानव सभ्यता के इतिहास में शायद सबसे शांत और सबसे विचलित कर देनेवाली हिंसा है !
इसे हम चूक नहीं कह सकते
क्योंकि सदियों से एक संस्कृति को धीमी आंच पर भुन रही आग को कुछ और तो कहा जा सकता है,
लेकिन इसे चूक नहीं कहा सकता !
जंगलों से आ रही नाराजगी-भरी, तेज़ आवाजें शायद पूछ रहीं हैं
कि हिंदुस्तान के मानचित्र पर उनके घर का पता क्या है ?
तेज़ी से बदलते हुए हिंदुस्तान में उनके ठहरे-हुए-मुकद्दर का यह तिलिस्म आखिरकार है क्या ?
कब तक उसकी संताने जंगली पत्तियां चबा-चबा कर हड्डियों के ढांचे के रूप में
महान भारत के नागरिक कहलाती रहेंगी ?
बस,
एक बार टूटी-फूटी, जंगली भाषा में चीख बन चुके इस सन्नाटे को कोई पूरी तरह ईमानदारी से सुन ले !
वैसे तो बहुत शोर है हर तरफ लेकिन सन्नाटे की क़ैद में है, तुम्हे फर्क महसूस नहीं हो रहा लेकिन तुम्हारी आज़ादी भी क़ैद में है !
Friday, 16 July 2010
Thursday, 15 July 2010
क्यूँ लगता था मुझे
यूँ तो वो इक पुल था फिर इंसान सा क्यूँ लगता था मुझे
जब भी मै होकर गुजरा उससे परेशां सा क्यूँ लगता था मुझे |
हर तरफ इक बदहवाशी थी जिस भी राह से मै गुजरा किया
फिर भी उन बदहवाशियों में आराम सा क्यूँ लगता था मुझे |
यूँ तो उसके हरेक गोशे में एक जुम्बिश थी जब भी पास से देखा मैंने
पर आगोश में वो जब भी आया बेजान सा क्यूँ लगता था मुझे |
वे सब चीख रहे थे एक-दूसरे पर किसी हादसे के अंदेशे से
और मै हैरान था कि सब कुछ आसान सा क्यूँ लगता था मुझे |
जब भी मै होकर गुजरा उससे परेशां सा क्यूँ लगता था मुझे |
हर तरफ इक बदहवाशी थी जिस भी राह से मै गुजरा किया
फिर भी उन बदहवाशियों में आराम सा क्यूँ लगता था मुझे |
यूँ तो उसके हरेक गोशे में एक जुम्बिश थी जब भी पास से देखा मैंने
पर आगोश में वो जब भी आया बेजान सा क्यूँ लगता था मुझे |
वे सब चीख रहे थे एक-दूसरे पर किसी हादसे के अंदेशे से
और मै हैरान था कि सब कुछ आसान सा क्यूँ लगता था मुझे |
अभी कल की ही बात है
अभी कल की ही बात है,
मै अपने आप से बाहर जाकर दुनिया को अंदर से झांक लेता था
और जीवन से होकर अपना मार्ग बना लेता था,
पूर्ण सहजता से !
चहचहाती हुई चिडिया को देख कर मुस्कुराता था,
उसके संगीत के स्वर में जीवन की पवित्रता का दर्शन करता था,
गुनगुनाता और गाता था
और आते-जाते बादलों में ढूंढता था अनेक रहस्य-भरी, प्यारी आकृतियाँ !
आनंद का एक अतिरेक उठता था मन में,
देख कर प्रकृति के सौंदर्य की विविधता को, अपनी विस्मय-भरी नज़रों से !
न जाने क्या हुआ मुझमे
कि अब अंदर से बाहर की मेरी सहज जीवन-यात्रा थमने लगी है,
खुद में हीं खोने लगा हूँ मै !
यदि कहीं बाहर निकलने का सोचता भी हूँ तो डर लगता है
कि कहीं किसी सड़क किनारे माँ की तरह लगनेवाली कोई बुढ़िया
जूठन चाटती और बार-बार सर उठाकर इधर-उधर देखने के क्रम में
सड़क से होकर गुजरते हुए कहीं मुझे अपनी कातर नज़रों से देख न ले |
झेल नहीं पाऊँगा मै उन कातर नज़रों में बसे हुए सवालों के शोर को !
फिर यह डर भी मुझे उतना हीं सताता है कि कहीं कचरा चुनते हुए बच्चों की मर्म-स्पर्शी निगाहों से मै टकरा न जाऊं,
कोई आसान जवाब उनका भी नहीं है मेरे पास,
दिल में उठनेवाले ग़म और गुस्से के सिवा जिन्हें मै कभी भी अपने से दूर ठेल न सका !
फिर, यह आशंका भी होती है कि कहीं डंडा लहराता पुलिस का कोई सिपाही
कचरा चुनते हुए उन बच्चों पर बेवजह डंडा न चला दे !
यह आशंका निराधार भी नहीं है
क्योंकि वह सिपाही एक विशाल एवं जड़ जमा चुकी किन्तु विगलित हो रही ब्यवस्था का अभिन्न अंग होता चला गया है आजादी के इतने यूँ ही बीत गए वर्षों में,
अपने निरंकुश तेवरों से प्रजातंत्र के नाज़ुक अंगों को बेधता हुआ
और अपनी आत्म-ग्लानि को बेवजह की गालियों से ढकने की कोशिश में बदहवाश एक प्रेत-आत्मा !
यह डर भी सताता है मुझे कि
कहीं कोई अमीरजादा नशे में धुत अपनी बिएम्दब्लु गाड़ी से जूठन चाटती बुढ़िया या फिर कचरा चुनते बच्चों को कुचल कर चला न जाये,
अपराध-बोध की जगह सिर्फ एक घबराहट लेकर जो मर चुके जमीर की पुख्ता दीवारों से टकरा-टकरा कर न जाने कब का दम तोड़ चुकी है !
सबसे ज्यादा भय इस बात से लगता है
कि यदि इनमे से किसी का भी ब्यथित परिवार इन्साफ के लिए साहस जुटा पायेगा
तो कही सजा दिलाने वाले और मुलजिम को बचाने वाले दोनों मित्र
बंद दरवाजों के पीछे
खुली हुई बोतलों के सामने साथ-साथ बैठ कर अपने कानूनी कौशल से इस अपराध को एक महज दुर्घटना न बना डालें !
इतना कुछ देख कर भी जाने क्यूँ घर से बाहर निकलने का अब भी मन करता है |
चहचहाती हुई चिड़िया अब भी बुलाती है |
बादलों में बनती-मिटती हुई आकृतियाँ अब भी अपना मौन निमंत्रण भेज रहीं हैं !
नीले आसमान में
और उसके नीचे बिखरे हुए अपार सौन्दर्य पर डाले जा रहे परदे को देख कर
बहुत सारे कडवापन से स्खलित उर्जा का एक बार फिर से आवाहन करते हुए
दिल के किसी कोने में थोडा सा डर,
थोड़ी सी झिझक का बोझ, जुटाए गए साहस का बल एवं संकल्प लेकर घर से निकल पड़ने का मन करता है !
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