Thursday, 15 July 2010

अभी कल की ही बात है


अभी कल की ही बात है,
मै अपने आप से बाहर जाकर दुनिया को अंदर से झांक लेता था
और जीवन से होकर अपना मार्ग बना लेता था,
पूर्ण सहजता से !
चहचहाती हुई चिडिया को देख कर मुस्कुराता था,
उसके संगीत के स्वर में जीवन की पवित्रता का दर्शन करता था,
गुनगुनाता और गाता था
और आते-जाते बादलों में ढूंढता था अनेक रहस्य-भरी, प्यारी आकृतियाँ !
आनंद का एक अतिरेक उठता था मन में,
देख कर प्रकृति के सौंदर्य की विविधता को, अपनी विस्मय-भरी नज़रों से !
न जाने क्या हुआ मुझमे
कि अब अंदर से बाहर की मेरी सहज जीवन-यात्रा थमने लगी है,
खुद में हीं खोने लगा हूँ मै !
यदि कहीं बाहर निकलने का सोचता भी हूँ तो डर लगता है
कि कहीं किसी सड़क किनारे माँ की तरह लगनेवाली कोई बुढ़िया
जूठन चाटती और बार-बार सर उठाकर इधर-उधर देखने के क्रम में
सड़क से होकर गुजरते हुए कहीं मुझे अपनी कातर नज़रों से देख न ले |
झेल नहीं पाऊँगा मै उन कातर नज़रों में बसे हुए सवालों के शोर को !
फिर यह डर भी मुझे उतना हीं सताता है कि कहीं कचरा चुनते हुए बच्चों की  मर्म-स्पर्शी निगाहों से मै टकरा न जाऊं,
कोई आसान जवाब उनका भी नहीं है मेरे पास,
दिल में उठनेवाले ग़म और गुस्से के सिवा जिन्हें मै कभी भी अपने से दूर ठेल न सका !
फिर, यह आशंका भी होती है कि कहीं डंडा लहराता पुलिस का कोई सिपाही
कचरा चुनते हुए उन बच्चों पर बेवजह डंडा न चला दे !
यह आशंका निराधार भी नहीं है
क्योंकि वह सिपाही एक विशाल एवं जड़ जमा चुकी किन्तु विगलित हो रही ब्यवस्था का अभिन्न अंग होता चला गया है आजादी के इतने यूँ ही बीत गए वर्षों में,
अपने निरंकुश तेवरों से प्रजातंत्र के नाज़ुक अंगों को बेधता हुआ
और अपनी आत्म-ग्लानि को बेवजह की गालियों से ढकने की कोशिश में बदहवाश एक प्रेत-आत्मा !
यह डर भी सताता है मुझे कि
कहीं कोई अमीरजादा नशे में धुत अपनी बिएम्दब्लु गाड़ी से जूठन चाटती बुढ़िया या फिर कचरा चुनते बच्चों को कुचल कर चला न जाये,
अपराध-बोध की जगह सिर्फ एक घबराहट लेकर जो मर चुके जमीर की पुख्ता दीवारों से टकरा-टकरा कर न जाने कब का दम तोड़ चुकी है !
सबसे ज्यादा भय इस बात से लगता है
कि यदि इनमे से किसी का भी ब्यथित परिवार इन्साफ के लिए साहस जुटा पायेगा
तो कही सजा दिलाने वाले और मुलजिम को बचाने वाले  दोनों मित्र
बंद दरवाजों के पीछे
खुली हुई बोतलों के सामने साथ-साथ बैठ कर अपने कानूनी कौशल से इस अपराध को एक महज दुर्घटना न बना डालें !
इतना कुछ देख कर भी जाने क्यूँ घर से बाहर निकलने का अब भी मन करता है |
चहचहाती हुई चिड़िया अब भी बुलाती है |
बादलों में बनती-मिटती हुई आकृतियाँ अब भी अपना मौन निमंत्रण भेज रहीं हैं !
नीले आसमान में
और उसके नीचे बिखरे हुए अपार सौन्दर्य पर डाले जा रहे परदे को देख कर
बहुत सारे कडवापन  से स्खलित उर्जा का एक बार फिर से आवाहन करते हुए
दिल के किसी कोने में थोडा सा डर,
थोड़ी सी झिझक का बोझ, जुटाए गए साहस का बल एवं संकल्प लेकर घर से निकल पड़ने का मन करता है !

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