Friday, 16 July 2010

नाराज तो दिखता है मगर ....... अजनबी नहीं लगता !

क्यों अचानक उठने लगा है काला धुआं जंगल  की साफ़, आदम  हवाओं में ?
क्यूँ  बिखरने लगा है
सदियों से ब्याप्त सन्नाटा बम, गोली और बारूदी सुरंगों के धमाकों से ?
कोई सिरफिरा कर रहा है ये सब
या फिर कोई ऐसा जिसे दूसरों की सुनने की नीयत पर ही  यकीन न रहा ?
क्या इसका कोई हिसाब लगाकर बताएगा
कि किसने-किसने इतिहास के अलग-अलग दौर में उस सन्नाटे को सुनने की जहमत  मोल नहीं ली
और जो शरीर से शुरू होकर धीरे-धीरे उसकी आत्मा तक ब्याप्त होता चला गया  ?
कौन मन-ही-मन जानते हुए भी
कि ठीक इसी वक़्त दूर जंगलों में अनेक माँ-बाप खुद भूखे रहकर अपनी-अपनी भूखी औलादों को उबली हुई जंगली पत्तियां खिला कर
उन्हें जिन्दा रखने का असफल प्रयास कर रहे होंगे,
सत्ता की गलियारों में अनजान बनने का अभिनय करता रहा !
किसने-किसने अपना कलेजा पत्थर का कर रखा है
कि उस पर से मानवीय संवेदनाओं की नाज़ुक परत उघरती चली गयी है
और ढकता चला गया है वह,
अपनी सुख-सुविधाओं की चमचमाती, मोटी खाल से !
किसने-किसने अपने कान में जंगलों से आ रही कराहों और  चीखों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ रखी है ?
हर उस चेहरे को जब भी मै कल्पना में देखता हूँ जिसके पीछे  सधी हुई  बंदूकें बढ  रही हैं,
तो वह धूल-सना चेहरा मुझे बहुत नाराज तो  दिखता है, मगर आतंकवादियों की तरह अजनबी और देश-द्रोही नहीं लगता !
क्या अचानक जंगलों में शांत पड़े लोगों को किसी काले जादू ने जकड लिया है
और अब वह  खुरदुरी हथेलिओं पर बदलाव की लाल किताब खून से लिख रहा है !
या सदियों से उपेछाओं की  कफन-सी ठंढी चादर समय के साथ जर्जर होकर परिवर्तन की तेज़ हवाओं में उड़ गयी है
और अचानक लाखों ब्यथित लोगों का गूंगापन एकदम से मुखर होकर सबके सामने आ गया है !
दरअसल  ये वही लोग हैं  जो शहरों  की चमक-दमक से दूर रहते-रहते धुंधले पड़ चुके हैं,
जो  जंगल के अंधेरों में गरीबी से टूट कर किसी झोपडी या पेड़ के नीचे  शव की तरह अब तक लेटे  रहे,
जो पुश्त-दर-पुश्त अनपढ़  होने के गूंगे शोर से लगभग बहरा हो चुके हैं
और बीमारी के थपेड़ों से चोट खाते-खाते सर्वनाश की आशंका से बेचैन होकर जाग उठे  हैं ?
क्या यह सच नहीं है कि यह वही आदिम गूंगापन ही है
जो शहरों में पोषित हो रही भोगवादी संस्कृति  तथा आत्म-रति से ग्रसित सुकुमार सभ्यता की आँखों में आंख डालकर तेज़ आवाज़ में असहज कर देनेवाले सवाल-दर-सवाल पूछ रहा है ?
एक मुद्दत से जहाँ सन्नाटा ठहर गया था,
फुसफुसाती थी  जहाँ पत्तियों में भूख की आदिम तड़प,
स्याह पहाड़ियों पर नंगे  पाँव घिसट-घिसट कर
भूख से मौत तक का सफ़र तय कर रहे थे जहाँ हड्डियों के बेशुमार ढांचे,
वहां से आनेवाला हर धमाके का रक्त-रंजित शोर आज बार-बार अपनी पहचान पूछ रहा है
और चिल्ला-चिल्ला कर  यह कह रहा है कि वह आज ही पुरखों के इस जंगल में फिर से खामोश हो सकता है 
क्योंकि उसका  विरोध सदियों से इकठ्ठा होती गयी उसकी मजबूरियों से उपजा है,
किसी लालच या  नफ़रत की भावना से नहीं |
उसे भी देश के संविधान में यकीन है,
पर कोई ये बताये तो कि उसमे उसके लिए क्या कुछ  लिखा है ?
उसे तो यह भी नहीं पता कि अपने बचाव में क्या करने से कानून बुरा  नहीं मानता है !
उसने  तो वही किया है जो सामने चली आ रही मौत से निबटने के लिए शायद किसी को भी करना पड़ सकता  है !
यह सच है कि कोई उसके घर आकर उसपर जानलेवा हमला  नहीं कर रहा था
लेकिन किसी की नब्ज़ को ठंढा होते देखते रहना और बचाव में कुछ भी नहीं करना मानव सभ्यता के इतिहास में  शायद सबसे शांत और सबसे विचलित कर देनेवाली  हिंसा है !
इसे हम चूक नहीं कह सकते
क्योंकि सदियों से एक संस्कृति को  धीमी आंच पर भुन रही आग को  कुछ और तो कहा जा सकता है,
लेकिन इसे चूक नहीं कहा  सकता !
जंगलों से आ रही नाराजगी-भरी, तेज़  आवाजें शायद पूछ रहीं हैं
कि हिंदुस्तान के मानचित्र पर उनके घर का पता क्या है ?
तेज़ी से बदलते हुए हिंदुस्तान में उनके ठहरे-हुए-मुकद्दर का यह तिलिस्म आखिरकार है क्या ?
कब तक  उसकी संताने जंगली पत्तियां चबा-चबा कर हड्डियों के ढांचे के रूप में
महान भारत के नागरिक कहलाती रहेंगी ?
बस,
एक बार टूटी-फूटी, जंगली भाषा में चीख बन चुके इस सन्नाटे को कोई पूरी तरह ईमानदारी से सुन ले !


2 comments:

  1. कब तक उसकी संताने जंगली पत्तियां चबा-चबा कर हड्डियों के ढांचे के रूप में
    महान भारत के नागरिक कहलाती रहेंगी ?
    बस,
    एक बार टूटी-फूटी, जंगली भाषा में चीख बन चुके इस सन्नाटे को कोई पूरी तरह ईमानदारी से सुन ले................सुनील जी में निशब्द हूँ आप के इस अंदर और गहरे तक किसे के बारे में अनुभव को बाया करना इतना आसन नहीं है ...उस में खुद जो जीना होता है ...लिखने से पहले
    आप ने ....जिया है ...उस जंगल में रहने वाले इन्सान के तोर पर आप की कविता में .....बहुत सुन्दर रचना के लिये बधाई आप को !!!!!nirmal paneri

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  2. निर्मल जी, आपके शब्दों से मैं अभिभूत हूँ | हाँ, यह सच है कि दूसरे के चेतना-प्रवाह में प्रवेश करना आसान नहीं होता और उसे जीने के बाद हीं अभिब्यक्ति देना संभव हो पाता है | शायद यही कारण है जिसके चलते रचना के पीछे का मंथन इतना पीड़ादायक होता है | मेरी रचना पर इतना विचार करने के इस मित्रवत प्रयास के लिए बहुत, बहुत धन्यवाद |

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