Wednesday, 6 February 2013

परिंदों से भी आगे



अपने जिस्म से बाहर
  निकलकर 


भटकता हुआ 


मैं आकाश में परिंदों से भी आगे निकल गया था उस शाम ।


उसकी आँखों में उभर आयी थीं 


प्राचीन गुफाओं में उकेरी गयी अध -मिटी आदिम आकृतियाँ  


जिनके मायने को लेकर मैं पूरी तरह  आश्वस्त न था 


उस दिन का उसका हर चुम्बन आ-आ कर टकराता रहा मुझसे 


और फिर 


मेरी ख़ामोशी को सजीव करता हुआ उतरता गया मुझमे।    


फुदकती रही सारी रात मेरी सासों में एक नन्ही गौरैया  


मैं तैरता रहा हवा में हर पीड़ा का बोझ नीचे छोड़कर ।


उसकी आँखों को पढ़ने के बाद


देर तक कुछ और नहीं पढ़ा जा सकता था 



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