Wednesday, 6 February 2013

परिंदों से भी आगे



अपने जिस्म से बाहर
  निकलकर 


भटकता हुआ 


मैं आकाश में परिंदों से भी आगे निकल गया था उस शाम ।


उसकी आँखों में उभर आयी थीं 


प्राचीन गुफाओं में उकेरी गयी अध -मिटी आदिम आकृतियाँ  


जिनके मायने को लेकर मैं पूरी तरह  आश्वस्त न था 


उस दिन का उसका हर चुम्बन आ-आ कर टकराता रहा मुझसे 


और फिर 


मेरी ख़ामोशी को सजीव करता हुआ उतरता गया मुझमे।    


फुदकती रही सारी रात मेरी सासों में एक नन्ही गौरैया  


मैं तैरता रहा हवा में हर पीड़ा का बोझ नीचे छोड़कर ।


उसकी आँखों को पढ़ने के बाद


देर तक कुछ और नहीं पढ़ा जा सकता था 



लगता था मुझे



यूँ तो मिलने जुलने का इक बेहतरीन सलीका था उसमे,
फिर भी न जाने क्यूँ वह इक दीवार सा लगता था मुझे |

उसमे हरेक खूबी थी जिससे इन्सान खूबसूरत हुआ जाता है,
लेकिन फिर भी कुछ था कि वह इश्तहार सा लगता था मुझे |

वहां तालीम मिलती थी या कि जाहीलियत पे महज एक मुलम्मा,
एक भी रौशन-दिमाग न मिला जबकि आसार सा लगता था मुझे |

एक पूरा मुल्क जाने लगा था पीछे उसकी रहनुमाई के,
पर फैसला-दर-फैसला वह इक बाज़ार सा लगता था मुझे |

इतनी चीख न जाने कहाँ जा के ग़ुम हो गयी थी उसमे,
कि वो जब भी हँसता था, कुछ बीमार सा लगता था मुझे

Tuesday, 22 January 2013

स्वीकार कर लो सबकुछ


स्वीकार कर लो सबकुछ

आज

अभी

एक ही पल में ।

अपनी हीं संवेदनाओं के आड़े-तिरछे तीखेपन से

बार-बार कटते और मिटते चले जाना न कोई ज़रूरी संघर्ष है

और न हीं अपने ब्यक्तित्व संभाले रहने की अनिवार्य क़ीमत ।

व्यक्ति और रिश्तों की तरह

जिन्दगी सिर्फ अपनी सम्पूर्णता में ही खूबसूरत है,

एक सार्थक अनुभूति की तलाश की थकान में

बार-बार परिभाषित होकर

टुकड़े- टुकड़े में बंटते चले जाने में नहीं ।

Friday, 17 December 2010

यहाँ भी, वहां भी

यहाँ भी, वहां भी

हर जगह इन्सान की जगह इन्सान के टुकड़ों से क्यूँ मुलाक़ात होती है मेरी ?

कहीं कोई ढूंढ़ रहा है दूसरों में खुद को

तो कहीं कोई खुद में दूसरों को ढूंढ रहा है

यहाँ भी, वहां भी |


यहाँ भी, वहां भी

हर दिल में धड़कन की जगह क्यूँ धधकती है आजकल समूची धरती ?

जो मुद्दा अफ्रीका के सीने में उबलता रहा है हिंसा का लावा बनकर

वही मुद्दा यूरोप में बहस के बीच कूटनीति की भाषा बनकर

आदमी और आदमी के बीच शक पैदा करने में लगा है !

एशिया में गरीबी के पड़ोस में उफनती दौलत को हिंसा में

और हिंसा को गहराती हुई गरीबी में ग़ुम होते देख रही दुनिया की ऑंखें

अमेरिका पहुंचकर

बन्दूक बेचती हुई शांति की जुबान को देखती ज्यादा और सुनती कम है !

क्या ये सब मेरा वहम है

या वहम की ख़ाल ओढ़े सच्चाई सहमी हुई भटकती है आजकल

यहाँ भी, वहां भी |


यहाँ भी, वहां भी

जो हाथ सहलाते थे कभी अजनबी चोट को भी मरहम लगाते हुए

वही हाथ आजकल चाकू की धार पर सान चढ़ाने में लगे हैं,

कभी-कभी पूरा का पूरा देश दिखता है अधमूंदी आँखों से यात्रा-रत

और दिखता है साधता हुआ निशाना -

हर एक उस विश्वास के मर्म-स्थल पर जो अपने विश्वास की शक्ल से नहीं मिलता !

न जाने क्यूँ आ समाई है आज शाम

मेरे पहले से हीं परेशान मन में एक कविता

पनाह के लिए ?

मैं देखता हूँ हर तरफ पर कोई जगह नहीं दिखती जहाँ छुप सकूँ मैं,

और मेरे साथ छुप सके मेरी कविता,

यहाँ भी, वहां भी |

Tuesday, 26 October 2010

हम भले हीं न बाँटते हों अपनी रोटियां

हम भले हीं न बाँटते हों अपनी रोटियां

साथ-साथ बैठकर

अपने खाने की मेज पर,

लेकिन हम बाँटते हैं

किसी परिवार के उसी अन्तरंग सहभागिता के साथ

रोज

एक मुल्क की क़शमक़श,

राजनीति से उपजी हुई अराजकता,

अप्रत्याशित स्थानों पर उग आये अंधेरों का भयानक एहसास,

हालात बदलने की बेचैनी !

लेकिन यह भी सच है कि हमें बाँटने की कोशिश में लिप्त

कुछ अफवाहें

कभी-कभी कामयाब हो जाती हैं कुछ जगहों पर

और छोड़ जाती हैं एक कड़वापन हम सब की जबान पर,

जैसे घट रहा हो मीठापन

छण-भर को

साथ-साथ बाँटकर खायी गयी रोटियों का

किसी परिवार में !

Monday, 27 September 2010

झंझट

यह परेशान मन से निकली हुई एक इच्छा के सिवा कुछ भी नहीं | ये तो कभी नहीं हो सकेगा |
जो लोग शहर और गाँव से भागकर गुफाओं में भी गए, उन्हें गुफाओं के झंझट मिले ! जिन्होंने विवाहित जीवन के झंझटों से पलायन कर सम्बन्ध -विच्छेद को विकल्प समझा, उन्हें एकाकी जीवन के विष-दंश झेलने पड़े ! जो लोग समाज से भागकर हिप्पी बने, उन्हें हिप्पी जीवन के झंझट झेलने को मिले ! जिन्हें अपने देश की दुर्ब्यवस्था से पीड़ा हुई और विदेश भागकर गए, उन्हें वहां स्वदेश की याद का झंझट झेलना पड़ा ! जो लोग राजनीति को गन्दा समझकर उससे दूर भागे, उन्हें उसी गन्दी राजनीति के फैसलों का खामियाजा भुगतना पड़ा ! ऐसा लगता है कि इस जिन्दगी के ताने-बाने में हीं झंझटों की अनिवार्य उपस्थिति है :)

Sunday, 12 September 2010

रात आधी हो गयी है |

सो गए हैं लोग लेकिन स्वप्न उनमें जागते हैं,

खलबली से थक चुके इंसान उनमे जागते हैं

नींद में हर फिक्र थक कर सो गयी है,

रात आधी हो गयी है |

हो चुकीं विस्मृत उनमे वासनाओं की कतारें,

शांत पड़ते मन -पटल पर भगवान उनमे जागते हैं,

उलझनों की पकड़ मन पर आज ढीली हो गयी है,

रात आधी हो गयी है |