Thursday, 15 July 2010

क्यूँ लगता था मुझे

यूँ तो वो इक पुल था फिर इंसान सा क्यूँ लगता था मुझे
जब भी मै होकर गुजरा उससे परेशां सा क्यूँ लगता था मुझे |

हर तरफ इक बदहवाशी थी जिस भी राह से मै गुजरा किया
फिर भी उन बदहवाशियों  में आराम सा क्यूँ लगता था मुझे |

यूँ तो उसके हरेक गोशे में एक जुम्बिश थी जब भी पास से देखा मैंने
पर आगोश में वो जब भी आया बेजान सा क्यूँ लगता था मुझे |

वे सब चीख रहे थे एक-दूसरे पर किसी हादसे के अंदेशे से
और मै हैरान था कि सब कुछ आसान सा क्यूँ लगता था मुझे |

2 comments:

  1. अनुपमा जी, रचना की प्रशंसा एवं उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद |

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