यूँ तो वो इक पुल था फिर इंसान सा क्यूँ लगता था मुझे
जब भी मै होकर गुजरा उससे परेशां सा क्यूँ लगता था मुझे |
हर तरफ इक बदहवाशी थी जिस भी राह से मै गुजरा किया
फिर भी उन बदहवाशियों में आराम सा क्यूँ लगता था मुझे |
यूँ तो उसके हरेक गोशे में एक जुम्बिश थी जब भी पास से देखा मैंने
पर आगोश में वो जब भी आया बेजान सा क्यूँ लगता था मुझे |
वे सब चीख रहे थे एक-दूसरे पर किसी हादसे के अंदेशे से
और मै हैरान था कि सब कुछ आसान सा क्यूँ लगता था मुझे |
sundar rachna!
ReplyDeleteअनुपमा जी, रचना की प्रशंसा एवं उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद |
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