Tuesday, 26 October 2010

हम भले हीं न बाँटते हों अपनी रोटियां

हम भले हीं न बाँटते हों अपनी रोटियां

साथ-साथ बैठकर

अपने खाने की मेज पर,

लेकिन हम बाँटते हैं

किसी परिवार के उसी अन्तरंग सहभागिता के साथ

रोज

एक मुल्क की क़शमक़श,

राजनीति से उपजी हुई अराजकता,

अप्रत्याशित स्थानों पर उग आये अंधेरों का भयानक एहसास,

हालात बदलने की बेचैनी !

लेकिन यह भी सच है कि हमें बाँटने की कोशिश में लिप्त

कुछ अफवाहें

कभी-कभी कामयाब हो जाती हैं कुछ जगहों पर

और छोड़ जाती हैं एक कड़वापन हम सब की जबान पर,

जैसे घट रहा हो मीठापन

छण-भर को

साथ-साथ बाँटकर खायी गयी रोटियों का

किसी परिवार में !

4 comments:

  1. लेकिन हम बाँटते हैं

    किसी परिवार के उसी अन्तरंग सहभागिता के साथ

    रोज
    ...
    एक मुल्क की क़शमक़श,

    राजनीति से उपजी हुई अराजकता,

    अप्रत्याशित स्थानों पर उग आये अंधेरों का भयानक एहसास,
    ये अहसास सच में भयावह होते हैं .. एक मुल्क जो अभी भी गर्भ में करवट ले रहा है .. दर्द से गुज़रते हुए , तिस पर उपजी अफवाहों की यंत्रणा .. बहुत मार्मिक रचना है .

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  2. जैसे घट रहा हो मीठापन

    छण-भर को

    साथ-साथ बाँटकर खायी गयी रोटियों का
    किसी परिवार में
    आज के परिपेक्ष्य में ...सत्य के साथ उकेरना अच्छा लगा .सुनील जी का !

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  3. उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद् , अपर्णा जी | आपके द्वारा मेरी रचना पर लिखे गए प्रशंसा के शब्द मेरे लिए बहुत अहमियत रखते हैं |

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  4. यह देखकर कि आपने इसे "सत्य के साथ उकेरा" जाना अनुभव किया सुखद अनुभूति हुई | धन्यवाद, निर्मल जी |

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